जा पर कृपा राम की होई, ता पर कृपा करे सब कोई


 जय श्री राम,जय जय राम


एक ईश्वरीय सत्ता के प्रति आत्मनिष्ठता हमारी संस्कृति का दार्शनिक पक्ष है, तो बहुलवादी उत्सवधर्मिता इसका व्यावहारिक पक्ष। दरअसल, उत्सवधर्मिता जीवंतता की कसौटी है। भारतीय संस्कृति के संदर्भ में, जब व्यक्ति का अंतर्मन जीवंतता से लबरेज होकर प्रफुल्लित हो उठता है तब उत्सव का स्वाभाविक प्रकटीकरण होता है। 


राम शब्द संस्कृत की ‘रम’ क्रीड़ायाम धातु से बना है अर्थात हरेक मनुष्य के अंदर रमण करने वाला जो चैतन्य-स्वरूप आत्मा का प्रकाश विद्यमान है, वही राम है। राम को शील-सदाचार, मंगल-मैत्री, करुणा, क्षमा, सौंदर्य और शक्ति का पर्याय माना गया है। कोई व्यक्ति सतत साधना के द्वारा अपने संस्कारों का परिशोधन कर राम के इन तमाम सद्गुणों को अंगीकार कर लेता है तो उसका चित्त इतना निर्मल और पारदर्शी हो जाता है कि उसे अपने अंत:करण में राम के अस्तित्व का अहसास होने लगता है। कदाचित यही वह अवस्था है जब संत कबीर के मुख से निकला होगा, ‘मोको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में। ना मैं मंदिर ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।’


राम, दशरथ और कौशल्या के पुत्र थे। संस्कृत में दशरथ का अर्थ है- दस रथों का मालिक। अर्थात पांच कर्मेंद्रियों और पांच ज्ञानेंद्रियों का स्वामी। कौशल्या का अर्थ है- ‘कुशलता’। जब कोई अपनी कर्मेंद्रियों पर संयम रखते हुए अपनी ज्ञानेंद्रियों को मर्यादापूर्वक सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है तो उसका चित्त स्वाभाविक रूप से राम में रमने लगता है।


पूजा-अर्चना की तमाम सामग्रियां उसके लिए गौण हो जाती हैं। ऐसे व्यक्ति का व्यक्तित्व इतना सहज और सरल हो जाता है कि वह जीवन में आने वाली तमाम मुश्किलों का स्थितप्रज्ञ होकर मुस्कुराते हुए सामना कर लेता है।

 भारतीय जनमानस में राम का महत्व इसलिए नहीं है कि उन्होंने जीवन में इतनी मुश्किलें झेलीं, बल्कि उनका महत्व इसलिए है, क्योंकि उन्होंने उन तमाम कठिनाइयों का सामना बहुत ही सहजता से किया। उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम भी इसलिए कहते हैं, क्योंकि अपने सबसे मुश्किल क्षणों में भी उन्होंने स्वयं को बेहद गरिमापूर्ण रखा।

बाल्यकाल से शुरू करें तो जब ब्रह्मर्षि विश्वामित्र उनके द्वारा किए जा रहे यज्ञों इत्यादि की रक्षा के लिए श्री राम को लेने आए तो महाराज दशरथ एवं स्वयं श्रीराम  ने बिना कुछ सोचे विचारे उनके साथ जाने को तैयार हो गए। इसके बाद जनकपुरी में बिना गुरु की आज्ञा के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने हेतू नहीं आगे बढ़े। एक मर्यादित पुरुष के अनुरूप न तो इन्होने अपने अदम्य साहस का प्रदर्शन और न ही घमण्ड किया।


श्रीराम जब विवाह उपरांत अयोध्या पहुंचे तो उनके राज्याभिषेक होना तय हुआ तथा रानी कैकेयी अपनी दासी मंथरा के बहकावे में आकार राम के लिए 14 वर्ष का वनवास और अपने पुत्र के लिए राजगद्दी की मांग की इस प्रसंग में भी राम ने एक मर्यादित पुरुष का आचरण रखते हुए बिना किसी झिझक के सहर्ष वनवास के तैयार हो गए। वन गमन उपरांत भी ऐसे कई प्रसंग है जैसे निषाद राज गुह से विनम्रता पूर्वक गंगा के उसपार जाने हेतु निवेदन एवं एक सच्चे मित्र जैसे सुग्रीव जैसे मित्र का सहयोग दिया।


शबरी के जूठे बेरों को सप्रेम ग्रहण करना, समुद्र के उस पार जाने हेतु समुद्र से निवेदन करना, एक शत्रु के भाई को जिसे शरण की आवश्यकता थी उन्हे प्रेम पूर्वक अपना लिया जाना और रावण के वध उपरांत लक्ष्मण को उनके पास भेजकर एक महान पंडित से ज्ञान ग्रहण करने को कहना। उपरोक्त उदाहरण के अतिरिक्त ऐसे बहुत सारे प्रसंग हैं जो श्रीराम को एक मर्यादित पुरुष सिद्ध करते है।


वर्तमान समय में यदि देखा जाये तो लोगो के मध्य प्रेम, सद्भावना, आदर, सम्मान इत्यादि का निर्णय लोगो के पद, प्रतिष्ठा, धन-वैभव आदि के आधार पर किया जाता है। श्री राम ने मर्यादित पुरुष का आचरण करते हुए लोगो में विभेद नहीं किया।


तो यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान समय में बहुत ही अधिक आवश्यकता है, लोगो के बीच जिस प्रकार से असहिष्णुता पनप रही है, लोभ इत्यादि में बंधे हुए लोग जो जीवन जी रहे है। उसके लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन का अनुशरण बहुत ही आवश्यक हो गया है। राम को जानने के लिए उनके जीवन के आदर्शों को जानना बहुत ही आवश्यक है और तो और राम की सच्ची भक्ति उनके प्रति सच्ची श्रद्धा उनके आदर्श जीवन का अपने जीवन में अनुशरण करने से होगा।