भक्त बड़ा या भगवान


 भगवान के भक्तों से कभी भी उलझना नहीं चाहिए, क्योंकि आप नहीं जानते कि उनके पीछे कितनी प्रचंड शक्तियां हो सकती हैं.. जो आपको दारुण दुःख पहुंचा सकती हैं..।

भक्त भगवान से बड़े हैं, लेकिन सच्चे भक्त। भगवान तो भक्त के अधीन हो जाते है। भक्त अपने प्रेम और समर्पण से भगवान से कुछ भी सेवा करा सकता है।



भगवान कृष्ण ने बार बार कहा है कि वे भक्त के आधीन हैं,राजा अमरीष के मामले में कृष्ण सुदर्शन को लौटाने में असमर्थ थे,दुर्वासा को अमरीष की शरण में जाना पड़ा,भीष्म की टेक रखने के लिए, भक्त अर्जुन की रक्षार्थ शस्त्र नहीं उठाने की अपनी प्रतिज्ञा तोडी़.


भगवान ने तो भक्त को बड़ा कहा है.भक्त के पास भक्ति होती है, इसलिए भगवान उसके पीछे पीछे फिरते हैं, 

ऐसे बडे़ तो भगवान ही हैं,

सोचने वाली बात है कि एक छोटी सी चिंगारी परमतत्व विशुद्ध रूप परमात्मा रूपी अग्नि को भी बंधन में बांधने की शक्ति रखता है(सामने ले आता है)।

इस लिहाज से प्रसन्न होकर भगवान को याद करिए।

संसार के झंझटों में रहकर भी जो भगवान का स्मरण करते हैं, वे ही सबसे बड़े भक्त हैं


भगवान और भक्त में भक्त को ही भगवान ने बडा माना है और ज़ब जरूरत पड़ी है तब सिद्ध भी किया है.

 भगवान कभी भी अपने भक्त को निराश नहीं करते स्वयं हार मान लेते हैं, उसका भला करते है. लेकिन कोई भी भक्त अपने आप को बडा नहीं मानता. सभी भगवान को पूजते है उनके उपासक है घमंड अभिमान नहीं करते. सज्जन इसी लिए कहे जाते है भक्त.

ऐसे बडे़ तो भगवान ही हैं.

ईश्वर का अस्तित्व ही भक्त की आस्था से है। भक्त हैं तभी ईश्वर है वरना वह भी नही।



 सबसे पहले तो ये जान ले की भक्ति क्या है, भक्ति और कुछ नहीं निस्वार्थ प्रेम है लेकिन लोग आजकल सही गुरु दिशा के अभाव में लोग भटक रहे है, लोग भक्ति को मंदिर में घंटा बजाना समझ रहे यही उनकी भूल है।

अब जब आपको भक्ति का मतलब समझ आ गया है तो आप निस्वार्थ प्रेम करना शुरू कर दीजिए अपने आराध्य से , जैसे शबरी ने किया था, जैसे विदुर ने किया था, इसलिए भगवान दुर्योधन की स्वार्थ भक्ति को छोड़ कर विदुर के घर साग रोटी खाने चले गए थे, प्रेम करना है तो प्रहलाद की तरह करो जिसे भगवान देना चाहते है लेकिन प्रहलाद कुछ लेना ही नहीं चाहते है और जब कोई लेना ही नहीं चाहता तो देने वाला त्रिभुवन पति भी उस से हार जाता है और उसका कायल हो जाता है कि इसने तो मुझे भी हरा दिया, जहां लेन देन्न होता है वह तो व्यापार होता है प्रेम में कैसा लेना देना, वहा तो सिर्फ देना देना और सिर्फ देना ही होता है और यही भगवान का गुण भी है और जब भगवान देखते है की इसका भक्त के गुण तो मुझ से मिलते है तो वह खुद आपके पास दौड़े दौड़े आ जाते है आपको उन्हें ढूंढने की जरूरत ही नहीं है।


आप खुद सोचिए प्रेम करने के लिए कोई विधि चाहिए होती है क्या। जिस भक्ति में सिर्फ विधि होती है वह तो सिर्फ क्रिया होती है, और जहा प्रेम से पूजा की जाती है आपका मन लगा होता है वहां कैसी विधि।




गुरु नानक देव जी कहते थे "जिन प्रेम कियो तीन प्रभ पायो"

प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर, प्रभु को नियम बदलते देखा

खुद का मान टले, टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा 

असीम,अनंत प्रेम ही तो भक्ति है। आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण, प्रति पल उसके सामीप्य की चेष्टा । तन, मन से बेसुध अपने आराध्य के प्रेम में डूबे भक्त का रुतबा ईश्वर स्वयं से भी बड़ा रखते है । तभी तो........


भगवान राम ने शबरी के जूठे बेर खाये

भगवान कृष्ण ने विदुर की पत्नी से केले के छिलके खाये।

कृष्ण, अर्जुन के सारथी बने ।

कृष्ण ने सुदामा को खाकपति से अरबपति बनाया।

राम भक्त हनुमान का नाम, रामकथा में महानायक की तरह स्थापित है।

राधा ने कृष्ण से प्रेम और भक्ति की, आज संसार मे कृष्ण से पहले राधा का नाम लिया जाता है।


भक्त ध्रुव एवं भक्त प्रह्लाद की कथा से सभी परिचित है कि किस तरह भगवान ने उनका रुतवा कायम किया।


ऐसे बहुत उदाहरण है जब भगवान ने अपने भक्त का रुतवा ऊंचा किया।तभी तो कहा है कि होते आये भगवान भक्त के वश में,