तत्कर्म यन्न बंधाय सा विद्या या विमुक्तये।


 तत्कर्म यन्न बंधाय सा विद्या या विमुक्तये। आयासायापरम् कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्। ' श्री विष्णु पुराण में उल्लेखित इस श्लोक का अर्थ है कि कर्म वही है, जो बंधन में ना बांधे, विद्या वही है जो मुक्त करे। अन्य सभी कर्म केवल निरर्थक क्रिया व अन्य सभी अध्ययन केवल कारीगरी मात्र हैं।


विद्या कौशल युक्त होती है जबकि शिक्षा कौशल रहित भी हो सकता है। एक व्यक्ति शिक्षा द्वारा स्थापित मानदंड को तोड़कर जब अपनी विवेक, समझ बूझ, अनुभव, योग्यता का उपयोग कर आगे आता है तो शिक्षा के उस स्तर को विद्या कहते हैं। जबकि शिक्षा एक स्थापित मानदंड है


हमारे जीवन में शिक्षा और विद्या दो अलग विधाएं हैं जिनको हम अक्सर एक ही समझने की भूल करते हैं शिक्षा का अर्थ है अपनी जानकारी का विस्तार करके स्वयं को लौकिक जगत की उपलब्धियों धनअर्जन एवं सुख सुविधाओं के योग्य स्थापित करना जो वर्तमान समृद्धि की प्राथमिक शर्त है 


लेकिन विद्या हमारा आत्मिक उत्थान करके हमें भोग विलास से दूर तपस्वी और परोपकारी बनाती है शिक्षा हमें चतुराई सिखा सकती जबकि विद्या से हम सफल और लोकप्रिय जीवन जीने के लिए प्रेरित होते हैं 


संक्षेप में शिक्षा हमें सभ्य बनाती किन्तु विद्या सुसंस्कारी जीवन में दोनों का ही महत्व है किन्तु विद्या का समाविष्ट किए बिना शिक्षा अधूरी है 


विद्या का मतलब है मनुष्य का मानसिक, शारीरिक, भौतिक, सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और आर्थिक हर प्रकार का विकास यानी समग्र उन्नति। जीने की कला का अभ्यास, आचरण और उसका पालन ही विद्या है। जिससे जीवन में विनम्रता, चिंतन, श्रम, सादगी, सहजता, सरलता, निर्भयता, निष्पक्षता, कला, संगीत, रोजगार, साहित्य, सामूहिकता, सामंजस्य, सौहार्द्र और स्वावलंबन सधे, वह विद्या है। संक्षेप में कहें तो हाथ, हृदय और मस्तिष्क का विकास जिससे संभव हो, वह विद्या है।


सीखना, सिखाना, पढ़ना, पढ़ाना, तालीम का लेन-देन, सूचना का आदान-प्रदान, अभ्यास, निपुणता, उपदेश, साधना, मंत्र, तप, जप, सबक, शासन, न्याय, समता, संयम, श्रम, स्वानुशासन, करुणा, दंड, विनय, शिष्टता, विनम्रता, ज्ञान, विज्ञान, कला, प्रयोग, साहित्य, सृजनशीलता, रचना और कौशल, विद्या के अंग हैं। विद्या जन्म से मृत्यु तक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। विद्या क्षेत्र, समाज, देश और प्रकृति की जरूरत के अनुसार अपनी पगडंडी तलाश लेने की क्षमता और कुशलता रखती है।


श्रम-निष्ठा द्वारा स्वास्थ्य, उद्योग द्वारा स्वावलंबन, कर्म द्वारा सत्यनिष्ठा, वैज्ञानिक वृत्ति द्वारा व्यवस्था तथा स्वच्छता का अभ्यास, सामूहिक जीवन द्वारा सहिष्णुता, सहयोग द्वारा सेवावृत्ति, कार्य-कौशल द्वारा ज्ञान-पिपासा की पूर्ति व स्वाध्याय, निर्माण द्वारा कल्पना तथा मूल प्रवृत्तियों के शोधन और कर्तव्यनिष्ठा आदि मानवीय गुणों से ही विद्या की बुनियाद मजबूत होती है।


स्वच्छ और स्वस्थ जीवन, सामाजिक शिक्षण और समाज सेवा, मूल उद्योग और स्वावलंबन, सांस्कृतिक और कलात्मक जीवन, तत्संबंधी सिद्धांत, ज्ञान की प्राप्ति और उसका अभ्यास भी विद्या के अंग हैं। आत्म संरक्षण, जीविकोपार्जन, पालन पोषण एवं वंश वृद्धि, नागरिकता की शिक्षा, अवकाश का सदुपयोग ये पांच तत्व विद्या के अभिन्न भाग हैं। सदाचारी, नैतिक और इन्द्रियों को वश में रखने वाला मनुष्य ही विद्या का सदुपयोग कर सकता है। वही सबके भले में अपना भला देख सकता है।