भक्ति की चरम सीमा और निर्भयता कैसे पता किया जाए, की भक्ति सच में प्रगाढ़ हो रही है, या ढोंग हो रहा है, इसका सबसे बड़ा सबूत है निर्भयता, जैसे जैसे भक्ति बढ़ती जायेगी, वैसे वैसे भक्त में निर्भयता बढ़ती जायेगी
भक्ति की चरम सीमा और निर्भयता
कैसे पता किया जाए, की भक्ति सच में प्रगाढ़ हो रही है, या ढोंग हो रहा है, इसका सबसे बड़ा सबूत है निर्भयता, जैसे जैसे भक्ति बढ़ती जायेगी, वैसे वैसे भक्त में निर्भयता बढ़ती जायेगी, उसे मान अपमान सब समान लगेगे, काम, क्रोध, मद, लोभ धीरे धीरे कम होते जायेंगे, जैसे जैसे भक्ति बढ़ती जायेगी, वैसे वैसे भक्त खुद को ईश्वर को समर्पित करता चला जाएगा, और जिस दिन भक्त खुद को पूर्ण रूपेण ईश्वर को समर्पित कर देगा, उस दिन वो निर्भय हो जायेगा, फिर उसे किसी सांसारिक बात, घटना से भय नहीं होगा, जब भक्त पूर्ण रूप से निर्भय हो जाता है, तब जो ईश्वर सब प्राणियों में सुसुप्त अवस्था में होता है,उस भक्त में ईश्वर प्रकट में प्रकाशित होने लगता है, इसकी अनुभूति भक्त को तो होती ही है, उसके आसपास संसार को भी होने लगती है,
लेकिन निर्भय हो जाना बड़ा कठिन है, संसार की वस्तुओ से मैं का भाव खत्म हो जाना बड़ा कठिन है, बड़े बड़े संयासी भी मैं का भाव नहीं छोड़ पाते, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जब व्यक्ति इन चारों से मैं का भाव हटा कर केवल उसको ईश्वर ही दिखाई देता है, न धर्म की इच्छा, न काम की इच्छा, न अर्थ की इच्छा, न मोक्ष की इच्छा, अब बस ईश्वर की ही इच्छा, ईश्वर जो उचित समझे, वो प्रदान कर दे, ये अवस्था परम जीवन कल्याण की अवस्था है, इस अवस्था को पाना सबके बस की बात नहीं, इसको पाना बड़ा मुश्किल है, और बड़ा सरल भी है, मैं का भाव खत्म, ईश्वर का सानिध्य मिल गया, मैं जब तक रहा, तब तक सब कुछ मिल जायेगा, लेकिन ईश्वर नहीं मिलेगा, परम शांति की अनुभूति नहीं होगी, मैं को खत्म करने के लिए कितना भी अभ्यास करना पड़े, कोई बुराई नहीं, मैं का पूर्ण विनाश होते ही परम पद मिल जायेगा,
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर, कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती. कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को फेरो.
