परमेश्वर को भी किसी के हृदय में प्रेम बहुत मधुर लगता है। लेकिन वो सच्चा प्रेम होना चाहिए,


 परमेश्वर को भी किसी के हृदय में प्रेम बहुत मधुर लगता है। लेकिन वो सच्चा प्रेम होना चाहिए, आसक्ति नहीं, आसक्ति एक बात है और प्रेम दूसरी। जब हम अपने उद्देश्य के लिए किसी से स्नेह करते हैं तो वह आसक्ति है।


आसक्ति से इच्छा और वासना का जन्म होता है, जो हमें नरक की ओर ले जाती है। जहां इरादा दूसरों को खुशी देने का हो उसे ही प्यार कहते हैं।


आसक्ति की वृत्ति पाने की होती है जबकि प्रेम की वृत्ति देने की होती है। दूसरों को सुख देने की क्षमता केवल मनुष्य को ही प्रदान की गई है।


भगवान से कोई इच्छा न होने के कारण, भक्तों ने सोचा - भगवान को प्यारा और मीठा दिखना चाहिए। यह शुद्ध प्रेम है, जो दोनों को अच्छा लगता है अर्थात भक्तों को भगवान से और भगवान को भक्तों से सुख मिलता है। भगवान और भक्त एक-दूसरे को देखकर आनंदित होते हैं


भगवान अपने प्रेमी भक्त के लिए मानहानि भी स्वीकार करते हैं, तिरस्कार भी स्वीकार करते हैं, अपमान भी स्वीकार करते हैं! भगवान ने अपने प्रेमी भक्त को बहुत ऊँचे आसन पर बिठाया है।


ईश्वर को भी सच्चे प्रेम से ही पाया जा सकता है। प्यार इतना अनोखा और जादुई तत्व है कि हर किसी को इसकी जरूरत होती है।


ईश्वर ने मनुष्य को इतनी शक्ति प्रदान की है कि वह (मनुष्य) सारे संसार की सहायता कर सकता है और स्वयं अपना उद्धार भी कर सकता है।


मूल रूप से प्रेम का मतलब है कि कोई और आपसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो चुका है। यह दुखदायी भी हो सकता है, क्योंकि इससे आपके अस्तित्व को खतरा है। जैसे ही आप किसी से कहते हैं, ’मैं तुमसे प्रेम करता हूं’, आप अपनी पूरी आजादी खो देते है। आपके पास जो भी है, आप उसे खो देते हैं। जीवन में आप जो भी करना चाहते हैं, वह नहीं कर सकते। बहुत सारी अड़चनें हैं, लेकिन साथ ही यह आपको अपने अंदर खींचता चला जाता है।


अगर आप खुद को नहीं मिटाते, तो आप कभी प्रेम को जान ही नहीं पाएंगे। आपके अंदर का कोई न कोई हिस्सा (आपका अहंकार) मरना ही चाहिए। आपके अंदर का वह हिस्सा, जो अभी तक ’आप’ था, उसे मिटना होगा, जिससे कि कोई और चीज या इंसान उसकी जगह ले सके। अगर आप ऐसा नहीं होने देते, तो यह प्रेम नहीं है, बस हिसाब-किताब है, लेन-देन है।


जीवन में हमने कई तरह के संबंध बना रखे हैं, जैसे पारिवारिक संबंध, वैवाहिक संबंध, व्यापारिक संबंध, सामाजिक संबंध आदि। ये संबंध हमारे जीवन की बहुत सारी जरूरतों को पूरा करते हैं। ऐसा नहीं है कि इन संबंधों में प्रेम जताया नहीं जाता या होता ही नहीं। बिलकुल होता है। प्रेम तो आपके हर काम में झलकना चाहिए। आप हर काम प्रेमपूर्वक कर सकते हैं। लेकिन जब प्रेम की बात हम एक आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में करते हैं, तो इसे खुद को मिटा देन की प्रक्रिया की तरह देखते हैं। जब हम ’मिटा देने’ की बात कहते हैं तो हो सकता है, यह नकारात्मक लगे।


जब आप वाकई किसी से प्रेम करते हैं तो आप अपना व्यक्तित्व, अपनी पसंद-नापसंद, अपना सब कुछ समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं। जब प्रेम नहीं होता, तो लोग कठोर हो जाते हैं। जैसे ही वे किसी से प्रेम करने लगते हैं, तो वे हर जरूरत के अनुसार खुद को ढालने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह अपने आप में एक शानदार आध्यात्मिक प्रक्रिया है, क्योंकि इस तरह आप लचीले हो जाते हैं। प्रेम बेशक खुद को मिटाने वाला है और यही इसका सबसे खूबसूरत पहलू भी है।


आप इसे कुछ भी कह लें – मिटाना कह लें या मुक्ति कह लें, या निर्वाण कह लें। । यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किसके प्रेम में पड़े हैं। आपके विनाश से मेरा मतलब यह नहीं है कि आपके घर का, आपके व्यापार का या किसी और चीज का विनाश। जिसे आप ’मैं( अहंकार )’ कहते हैं, जो आपका सख्त व्यक्तित्व है, प्रेम की प्रक्रिया में उसका विनाश होता है, और यही खुद को मिटाना है।


जब आप प्रेम में डूब जाते हैं तो आपके सोचने का तरीका, आपके महसूस करने का तरीका, आपकी पसंद-नापसंद, आपका दर्शन, आपकी विचारधारा सब कुछ पिघल जाता है। आपके भीतर ऐसा अपने आप होना चाहिए, और इसके लिए आप किसी और इंसान का इंतजार मत कीजिए कि वह आकर यह सब करे। इसे अपने लिए खुद कीजिए, क्योंकि प्रेम के लिए आपको किसी दूसरे इंसान की जरूरत नहीं है। आप बस यूं ही किसी से भी प्रेम कर सकते हैं। आप ईश्वर से प्रेम कर सकते हैं, अगर आप बस किसी के भी प्रति हद से ज्यादा गहरा प्रेम पैदा कर लेते हैं – जो आप बिना किसी बाहरी चीज के भी कर सकते हैं – तो आप देखेंगे कि इस ’मैं’ का विनाश अपने आप होता चला जाएगा।