सोई ब्राह्मण जो ब्रह्म विचारे।" जो ब्रह्म के विचार में लीन रहे, वही ब्राह्मण है।


 ब्राह्मण भारत के लिए उपयोगी क्यों है, इसलिए क्यों कि भारतीय संस्कृति सनातन संस्कृति है, जिसमें यम, नियम, सदाचार, पूजा पाठ, की प्रधानता है, और ब्राह्मण में ये सब स्वभाव से ही होता है, ब्राह्मण ने सदा से ही सनातन का भला चाहा, लेकिन जब विदेशियों ने भारत पर हमला करना चाहा, तो उन्होंने पाया, की जब तक ब्राह्मण को पथ भ्रस्ट नहीं किया जायेगा, नीचा नहीं दिखाया जायेगा, तब तक भारत विजय नहीं हो सकती, क्यों कि ब्राह्मण पूरे भारत को, सनातन संस्कृति को, सभी वर्गो को एक किये हुए थे, सनातन संस्कृति की वजह से देश हर तरह से परिपूर्ण था, कोई कमी नहीं थी, इसलिए पहला कार्य किया गया, की भारत की शिक्षा प्रणाली को बदला गया, ब्राह्मणो को अलग थलग करने की कोशिश की गई, ब्राह्मणो के खिलाफ अन्य वर्गो मे नफरत भरी गई, और ब्राह्मणो को हर तरह से नीचा दिखाने की कोशिश की गई, मंदिरों को तोड़ा गया, और उसमें विदेशी आक्रन्ता पूर्ण तो नहीं, 80% सफल हुए, उन्होंने ईश्वर वादी सनातन संस्कृति को भौतिकता प्रधान संस्कृति मे बदल दिया, ब्राह्मण को अपने को समझना होगा, पुनः अपने अस्तित्व को पहचान ना होगा, सनातन संस्कृति की रक्षा की सोच, सभी वर्गो की भलाई की सोच, तभी ब्राह्मण अपनी वर्तमान दुर्दशा से उभर सकता है, ब्राह्मण अपनी उन्नति से देश को उस ऊंचाई पर पहुँचा सकता है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती



आत्मतत्व सत्, चित्, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है, इसलिए ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्य को ही ब्राह्मण कहा जा सकता है। जिसमें ब्रह्म भाव, सो ब्राह्मण। इसी बात को कबीर साहब ने कई शताब्दियों बाद ऐसे कह दिया, "सोई ब्राह्मण जो ब्रह्म विचारे।" जो ब्रह्म के विचार में लीन रहे, वही ब्राह्मण है।



पूर्वकाल में ब्राह्मण होने के लिए शिक्षा, दीक्षा और कठिन तप करना होता था। इसके बाद ही उसे ब्राह्मण कहा जाता था। गुरुकुल की अब वह परंपरा नहीं रही। जिन लोगों ने ब्राह्मणत्व अपने प्रयासों से हासिल किया था उनके कुल में जन्मे लोग भी खुद को ब्राह्मण समझने लगे। ऋषि-मुनियों की वे संतानें खुद को ब्राह्मण मानती हैं, जबकि उन्होंने न तो शिक्षा ली, न दीक्षा और न ही उन्होंने कठिन तप किया। वे जनेऊ का भी अपमान करते देखे गए हैं।



शराब पीकर, मांस खाकर और असत्य वचन बोलकर भी खुद कोई ब्राह्मण नहीं कह सकता हैं। धर्म के बारे में पूर्ण जानकारी नहीं रखकर, धर्म के बारे में मनमानी बाते बोलकर या धर्मविरोधी वचन बोलकर खुद को ब्राह्मण कहने वाले ब्राह्मण नहीं हो सकते।



आप में से लगभग लोग जानते होंगे कि हिंदू धर्म में ब्राह्मण देवता तो किसी देवी-देवता के कम नहीं माना जाता। कहने का भाव हैं इन्हें भी देवी-देवताओं की ही तरह पूजनीय माना जाता है। मगर इन्हीं लोगों में से बहुत से लोगों के मन में ये सवाल भी आया होगा कि आख़िर क्यों ब्राह्मण को देवता का रूप माना जाता है? इसके पीछे का कारण क्या है? दरअसल इस बात का विवरण धार्मिक ग्रंथों में बाखूबी किया गया है। जी हां शास्त्रों से जानते हैं कि क्यों ब्राह्मण को देवता समान पूजनीय माना जाता है।




शास्त्रीय मत-

पृथिव्यां यानी तीर्थानि तानी तीर्थानि सागरे ।

सागरे सर्वतीर्थानि पादे विप्रस्य दक्षिणे ।।

चैत्रमाहात्मये तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदास्तन्मुखमाश्रिताः ।

सर्वांगेष्वाश्रिता देवाः पूजितास्ते तदर्चया ।।

अव्यक्त रूपिणो विष्णोः स्वरूपं ब्राह्मणा भुवि ।

नावमान्या नो विरोधा कदाचिच्छुभमिच्छता ।।

अर्थात- उपरोक्त श्लोक के अनुसार पृथ्वी में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी समुद्र में मिलते हैं और समुद्र में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी ब्राह्मण के दक्षिण पैर में है। चार वेद उसके मुख में हैं। अंग में सभी देवता आश्रय करके रहते हैं। इसलिए ऐसी मान्यता है ब्राह्मण की पूजा करने से सब देवों की पूजा होती है। पृथ्वी में ब्राह्मण विष्णु स्वरूप माने गए हैं इसलिए जिसको कल्याण की इच्छा हो उसे कभी ब्राह्मणों का अपमान तथा द्वेष नहीं करना चाहिए।



देवाधीनाजगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता:।

ते मन्त्रा: ब्राह्मणाधीना:तस्माद् ब्राह्मण देवता।

अर्थात- सारा संसार देवताओं के अधीन है तथा देवता मंत्रों के अधीन हैं और मंत्र ब्राह्मण के अधीन हैं ब्राह्मण को देवता माने जाने का एक प्रमुख कारण ये भी है।



ॐ जन्मना ब्राह्मणो, ज्ञेय:संस्कारैर्द्विज उच्चते।

विद्यया याति विप्रत्वं, त्रिभि:श्रोत्रिय लक्षणम्।।

अर्थात- ब्राह्मण के बालक को जन्म से ही ब्राह्मण समझना चाहिए। संस्कारों से "द्विज" संज्ञा होती है तथा विद्याध्ययन से "विप्र" नाम धारण करता है। जो वेद, मंत्र तथा पुराणों से शुद्ध होकर तीर्थ स्नानादि के कारण और भी पवित्र हो गया है, वह ब्राह्मण परम पूजनीय माना गया है।



ॐ पुराणकथको नित्यं, धर्माख्यानस्य सन्तति:।

अस्यैव दर्शनान्नित्यं ,अश्वमेधादिजं फलम्।।

अर्थात- जिसके हृदय में गुरु,देवता,माता-पिता और अतिथि के प्रति भक्ति है। जो दूसरों को भी भक्तिमार्ग पर अग्रसर करता है,जो सदा पुराणों की कथा करता और धर्म का प्रचार करता है। शास्त्रों में ऐसे ब्राह्मण के दर्शन से अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त होने की बात कही गई है।



पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार पितामह भीष्म जी ने पुलस्त्य जी से पूछा हे गुरुवर! मनुष्य को देवत्व, सुख, राज्य, धन, यश, विजय, भोग, आरोग्य, आयु, विद्या, लक्ष्मी, पुत्र, बन्धुवर्ग एवं सब प्रकार के मंगल की प्राप्ति कैसे हो सकती है। तब पुलस्त्य जी ने उनकी बात का उत्तर देते हुए कहा राजन!इस पृथ्वी पर ब्राह्मण सदा ही विद्या आदि गुणों से युक्त और श्रीसम्पन्न होता है। तीनों लोकों और प्रत्येक युग में विप्रदेव नित्य पवित्र माने गए हैं। ब्राह्मण देवताओं का भी देवता है। संसार में उसके समान कोई दूसरा नहीं है। वह साक्षात धर्म की मूर्ति है और सबको मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाला है। ब्राह्मण सब लोगों का गुरु, पूज्य और तीर्थस्वरुप मनुष्य है। पूर्वकाल में नारदजी ने ब्रम्हाजी से पूछा था। ब्रम्हन्! किसकी पूजा करने पर भगवान लक्ष्मीपति प्रसन्न होते हैं। तो ब्रह्मा जी बोले, जिस पर ब्राह्मण प्रसन्न होते हैं,उस पर भगवान विष्णु जी भी प्रसन्न हो जाते हैं। अत: ब्राह्मण की सेवा करने वाला मनुष्य निश्चित ही परब्रम्ह परमात्मा को प्राप्त होता है। ब्राह्मण के शरीर में सदा ही श्री विष्णु का निवास है। जो दान, मान और सेवा आदि के द्वारा प्रतिदिन ब्राह्मणों की पूजा करते हैं, उसके द्वारा मानों शास्त्रीय पद्धति से उत्तम दक्षिणा युक्त सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान हो जाता है। जिसके घर पर आया हुआ ब्राह्मण निराश नही लौटता, उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है। पवित्र देश काल में सुपात्र ब्राह्मण को जो धन दान किया जाता है वह अक्षय होता है। वह जन्म जन्मान्तरों में फल देता है, उनकी पूजा करने वाला कभी दरिद्र, दुखी और रोगी नहीं होता है। 



जहां वेद शास्त्र की गर्जना नहीं होती,जहां स्वाहा,स्वधा,स्वस्ति और मंगल शब्दों का उच्चारण नहीं होता है। वह चाहे स्वर्ग के समान भवन भी हो तब भी वह श्मशान के समान है।


 पितृयज्ञ(श्राद्ध-तर्पण), विवाह, अग्निहोत्र, शान्तिकर्म और समस्त मांगलिक कार्यों में सदा उत्तम माने गए हैं। ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य और पितर कव्य का उपभोग करते हैं। ब्राह्मण के बिना दान,होम तर्पण आदि सब निष्फल होते हैं।



जहां ब्राह्मणों को भोजन नहीं दिया जाता,वहा असुर,प्रेत,दैत्य और राक्षस भोजन करते हैं। इसलिए कहा जाता है ब्राह्मण को देखकर श्रद्धापूर्वक उसको प्रणाम करना चाहिए।


उनके आशीर्वाद से मनुष्य की आयु बढती है,वह चिरंजीवी होता है। ब्राह्मण को देखकर भी प्रणाम न करने से,उनसे द्वेष रखने से तथा उनके प्रति अश्रद्धा रखने से मनुष्यों की आयु क्षीण होती है, धन ऐश्वर्य का नाश होता है तथा परलोक में भी उसकी दुर्गति होती है।


रामचरित मानस में कहा गया है-

ॐ नमो ब्रम्हण्यदेवाय,

गोब्राम्हणहिताय च।

जगद्धिताय कृष्णाय,

गोविन्दाय नमोनमः।।

अर्थात- जगत के पालनहार गौ, ब्राम्हणों के रक्षक भगवान श्रीकृष्ण जी कोटिशः वन्दना करते हैं। जिनके चरणारविन्दों को परमेश्वर अपने वक्षस्थल पर धारण करते हैं, उन ब्राम्हणों के पावन चरणों में हमारा कोटि-कोटि प्रणाम है। ब्राह्मण जप से पैदा हुई शक्ति का नाम है, ब्राह्मण त्याग से जन्मी भक्ति का धाम है।




ब्राह्मण दो प्रकार के होते हैं—एक जन्म से, दूसरे कर्म से।


पुराणों में मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि एवं मुनि आदि भेद बताए गए हैं। उन्हें विप्र एवं द्विज कह कर भी संबोधित किया जाता है।


विप्रों में खाण्डल, पारीक, गौड़, दाधीच, सारस्वत, गुर्जर गौड़ एवं कान्यकुब्ज आते हैं।


मात्र—जो मात्र जन्म से ब्राह्मण हैं, कर्म से नहीं। अधिकतर ऐसे ही हैं।


ब्राह्मण—सत्यवादी, ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांत-प्रिय।



श्रोत्रिय—वेद की एक शाखा को कल्प एवं छः अंगों समेत पढ़कर ब्राह्मणोचित ६ कर्मों में, जो संलग्न रहे।


अनुचान—वेद-वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्ध-चित्त ज्ञाता एवं गुरु।


भ्रूण—अनुचान के गुणों से युक्त एवं संयमित व्यक्ति, जो यज्ञ एवं स्वाध्याय में संलग्न हो।


ऋषिकल्प—वेदों-स्मृतियों एवं लौकिक विषयों का ज्ञाता, संयमी, आश्रमवासी ब्रह्मचारी।


ऋषि—सम्यक आहार, विहार युक्त, संशय-रहित, समर्थ ब्रह्मचारी, जिनके शाप एवं वरदान फलित हों,


मुनि—निवृत्ति-मार्ग में स्थित, जितेंद्रिय, सम्पूर्ण तत्वों के ज्ञाता एवं सिद्ध।


ब्राह्मण शब्द का प्रयोग, अथर्व वेद के उच्चारण-कर्ता ऋषियों के लिए किया जाता था।


एक वेद पढ़ने वाले को पाठक, दो वेदों को पढ़नेवाले द्विवेदी या दुबे, तीन वेदों को पढ़नेवाले त्रिवेदी या तिवारी और चारों वेदों को पढ़नेवाले चतुर्वेदी या चौबे कहलाते हैं।


शुक्ल यजुर्वेद के ज्ञाता शुक्ला कहलाए। शास्त्रों के जानकार एवं शास्त्रार्थ में निपुण शास्त्री कहलाए। सभी वेद, पुराणों के ज्ञाता पंडित, पांंडेय, पाध्याय या उपाध्याय कहलाए।


इसके अतिरिक्त सरयूपारीण, कान्यकुब्ज, मैथिल, जिझौतिया, बंगाली, मराठी, कश्मीरी, सनाढ्य, गौड़, भार्गव, महा-ब्राह्मण आदि होते हैं।



ऋषि-कुलों के अनुसार भरद्वाज, गर्ग, गौतम, अग्निहोत्री, भार्गव आदि उनके उपनाम अथवा गोत्र होते हैं। शासकों द्वारा प्रदत्त उपाधियाँ भी उपनामों के रूप में प्रचलित हैं, जैसे—राव, चौधरी आदि।


कोई भी मनुष्य ब्राह्मण बन सकता है।

जितना सत्य यह है कि केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं है, यह भी उतना ही सत्य है कि कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है। इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते जो इस प्रकार हैं।


ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।

ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे। जुआरी और हीनचरित्र भी थे। परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये|ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। (ऐतरेय ब्राह्मण२.१९)

सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे। परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।

राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। (विष्णु पुराण ४.१.१४)

राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण ४.१.१३)

धृष्ट नाभाग के पुत्र थे, परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण ४.२.२)

आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए। (विष्णु पुराण ४.२.२)

भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए।

विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने।

हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए। (विष्णु पुराण ४.३.५)

क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। (विष्णु पुराण ४.८.१)

वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए। इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं।

मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने।

ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना।

राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ।

त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |

विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया। विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया।

विदुर दासी पुत्र थे। तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया।


आत्मतत्व सत्, चित्, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है, इसलिए ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्य को ही ब्राह्मण कहा जा सकता है। जिसमें ब्रह्म भाव, सो ब्राह्मण। इसी बात को कबीर साहब ने कई शताब्दियों बाद ऐसे कह दिया, "सोई ब्राह्मण जो ब्रह्म विचारे।" जो ब्रह्म के विचार में लीन रहे, वही ब्राह्मण है।


ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या : जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर किसी अन्य को नहीं पूजता वह ब्राह्मण। ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है। कहते हैं कि जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथा वाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता वह ब्राह्मण नहीं।


न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।

यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥



अर्थात : भगवान बुद्ध कहते हैं कि ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है। कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं।


तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे।

जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं॥



अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है, कौन स्थावर है। और मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं।


न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।

न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥


अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि सिर मुंडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता। ओंकार का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। केवल जंगल में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता। वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी नहीं बन जाता।


शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः।

वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च॥

पौण्ड्रकाशचौण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः भवनाः शकाः ।

पारदाः पहल्वाश्चीनाः किरताः दरदाः खशाः॥- मनुसंहिता (1- (/43-44)


अर्थात : ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पोण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक, पारद, पहल्व, चीनी किरात, दरद व खश ये सभी क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गईं।


जाति के आधार के कथित ब्राह्मण के प्रकार...


जाति के आधार पर हजारों वर्ष की परंपरा और कालक्रम में ब्राह्मणों के हजारों प्रकार हो गए हैं। उत्तर भारतीय ब्राह्मणों के प्रकार अलग तो दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों के अलग प्रकार। उत्तर भारत में जहां सारस्वत, सरयुपा‍रि, गुर्जर गौड़, सनाठ्य, औदिच्य, पराशर आदि ब्राह्मण मिल जाएंगे तो दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के तीन संप्रदाय हैं- स्मर्त संप्रदाय, श्रीवैष्णव संप्रदाय तथा माधव संप्रदाय। इनके हजारों उप संप्रदाय हैं।


पुराणों के अनुसार पहले विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा हुए, ब्रह्मा का ब्रह्मर्षिनाम करके एक पुत्र था। उस पुत्र के वंश में पारब्रह्म नामक पुत्र हुआ, उससे कृपाचार्य हुए, कृपाचार्य के दो पुत्र हुए, उनका छोटा पुत्र शक्ति था। शक्ति के पांच पुत्र हुए। उसमें से प्रथम पुत्र पाराशर से पारीक समाज बना, दूसरे पुत्र सारस्वत के सारस्वत समाज, तीसरे ग्वाला ऋषि से गौड़ समाज, चौथे पुत्र गौतम से गुर्जर गौड़ समाज, पांचवें पुत्र श्रृंगी से उनके वंश शिखवाल समाज, छठे पुत्र दाधीच से दायमा या दाधीच समाज बना।...इस तरह ‍पुराणों में हजारों प्रकार मिल जाएंगे। 


इसके अलावा माना जाता है कि सप्तऋषियों की संतानें हैं ब्राह्मण। जैन धर्म के ग्रंथों को पढ़ें तो वहां ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन अलग मिल जाएगा। बौद्धों के धर्मग्रंथ पढ़ें तो वहां अलग वर्णन है। लेकिन सबसे उत्तम तो वेद और स्मृतियों में ही मिलता है। लेकिन हम यहां जाति के आधार के प्रकार की बात नहीं कर रहे हैं। 

 


कोई भी बन सकता है ब्राह्मण : ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को है चाहे वह किसी भी जाति, प्रांत या संप्रदाय से हो। ऐसे हजारों उदाहरण हैं जबकि क्षत्रिय समाज से कई लोग ब्राह्मण बने और ब्राह्मण समाज से कई लोग क्षत्रिय। ऐसे कई वैश्य है जिन्होंने पूर्वकाल में क्षत्रियत्व धारण किया और ऐसे भी कई दलित है जिन्होंने ब्राह्मणत्व धारण कर समाज को दिशा दी। हां यह बात सही है कि ब्राह्मण होने के लिए कुछ नियमों का पालन करना होता है। ज्ञान, साहस, संयम, विनम्रता और संस्कार को महत्व देना होता है। 

भगवान ने कहा कि जीवन में कभी ब्राह्मण व संत का धन हरण नहीं करना चाहिए। चाहे वह अनजाने में भी क्यों न हो, राजा नृग ने गलती से वह गाय दूसरे ब्राह्मण को दे दी। जो पहले दान कर चुका था, अपितु वह बहुत बडा़दानी था। मरने के पश्चात गिर बना। उसकी मात्र एक ही तो गलती थी जो अनजाने में हो गई थी, इसलिए हमें किसी ब्राहम्ण या संत का गलती से भी धन नहीं लेना चाहिए व हरण नहीं करना चाहिए। भागवत में द्रोपदी स्वयं कहती है कि विष पीने वाला तो स्वयं मरता है, पर जो ब्राहम्ण का धन हरण करता है तो अपने वंश को भी गर्त में गिरा देता है, इसलिए जीवन में ध्यान से कभी ब्राहम्ण या संत का धन लेने की चेष्ठा नहीं करनी चाहिए। भागवत में जो लिखा है उसे जीवन में उतारो और रामायण में जो लिखा है उसे जीवन में करो। तभी मानव जीवन सफल है


ब्राह्मण और पंडित में जमीन आसमान का अंतर होता है। अब प्रश्न उठता है कि हम लोग तो ब्राह्मण को ही पण्डित कहते है तो दोनों अलग अलग कैसे हुए। तो चलिए बात करते हैं इस विषय पर


ब्राह्मण:-


ब्राह्मण के नाम मे ब्रह्म: शब्द जुड़ा है जिस का सनातन संस्कृति के अनुसार अर्थ है ईश्वर । अतः ब्राह्मण का अर्थ हुआ ईश्वर को मानने वाला या ईश्वर की स्तुति करने वाला। धर्म को मानने वाला धार्मिक कर्म कांड को जानने वाला। प्राचीन समय मे ब्राह्मण ही धार्मिक कर्मकाण्ड के कार्य करते थे जो भी दक्षिणा उन्हें मिलती थी उसी से उनके कुटुम्ब का निर्वाह होता था।


पण्डित:-


पण्डित शव्द में पण्ड आता है और पण्ड का अर्थ होता है विद्वान। किसी भी विषय में पूरा ज्ञान रखने वाले को पण्डित कहते है। अर्थात वो व्यक्ति जो ज्ञाता हो गया ज्ञान रखता और उसका कर्म और व्यवहार पण्डित बनाता है।


विदुर नीति के अनुसार:-


आत्मज्ञानं समारंभस्तितिक्षा धर्म नित्यता |


यमर्था नापकर्षन्ति स वै पण्डिताः उच्यैते |


श्लोक का स्त्रोत विदुर नीति साभार गूगल


अर्थात : जो व्यक्ति अपनी आत्मा से परिचित है अपनी शक्तियों को जानता हो और अपनी शक्ति के अनुरुप कार्य करता है बह पण्डित कहलाता है। अर्थात वो ज्ञाता है सम्पूर्ण ज्ञान रखने बाला।