स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों का कार्य-क्षेत्र कुछ अधिक दुरूह, जटिल और कठिनाइयों से पूर्ण होता है।
अकेले श्रम की ही बात होती तो संभवतः उतनी जटिलतायें पुरुष वर्ग के सामने न होती किन्तु लोक- व्यवहार, लेन-देन, गृहस्थी के लिए आपा-धापी, धन-जुटाना, कचहरी मुकदमें आदि करना, इनमें उसे बार-बार निराशा का सामना करना होता है। कितने ही जगह उसे लताड़े मिलती हैं, कई जगह अपमान होता है। कहीं थकावट, कहीं पीड़ा। दिनभर तमाम मुसीबतों, कठिनाइयों का कामना करना पड़ता है। इतनी सारी परेशानियों का बोझ सिर पर उठा कर चलना निःसन्देह पुरुष का ही काम है। सचमुच उसे अधिक कष्ट उठाने पड़ते हैं।
दिन-भर का हारा-थका आदमी अपनी पत्नी और बच्चों से स्नेह और आत्मीयता की आशा रखकर घर पहुँचता है। सोचता है-घर पहुँचते ही पत्नी उसका स्वागत करेगी, कुछ ममत्व प्रकट करेगी, अपने दुःख को सुनकर कुछ प्रबोध देगी, धीरज बंधायेगी तो कुछ सान्त्वना मिलेगी। थके हुए आदमी को एक लोटा जल मिल जाता है तो उसका सारा श्रम दूर हो जाता है। पत्नी के इतना पूँछ लेने से "आज आपका मुख उदास क्यों है, कुछ कष्ट तो नहीं है।" मनुष्य की सारी बेचैनी दूर हो जाती है। अपना जीवन-साथी, चिर-सहचर होने का यही अर्थ तो है कि एक के दुःख-दर्द को दूसरा बँटाये, आपत्ति में कुछ धैर्य दे और उसकी पीड़ा को अपनी पीड़ा समझकर कुछ सेवा शुश्रूषा करे।
इतना करना तो दूर रहा यदि स्त्रियाँ अपने पुरुषों से ठीक तरह बात भी न करें, उन्हें बात-बात पर ताने, झिड़कियाँ देती रहें तो उस मनुष्य को कितनी पीड़ा, कितनी व्यथा होती होगी यह वह बेबस भुक्त- भोगी ही समझता होगा। ऐसी दशा में क्या कभी दाम्पत्य जीवन सुखी रह सकता है? क्या कभी स्त्रियाँ यह कल्पना कर सकती हैं कि उन्हें पुरुष का प्यार मिलेगा? ऐसे परिवारों में कभी सौजन्यता रहती होगी वह सोचा भी नहीं जा सकता।
मानते हैं कि स्त्रियों के अपने भी कुछ अधिकार हैं। उन्हें भी अपनी भावनायें व्यक्त करने के लिए आवश्यक वस्तुयें चाहिए। उन्हें भी काम करना पड़ता है, उनके लिए मान सम्मान का भी एक क्षेत्र है किन्तु अपनी परिस्थितियों को भी तो देखना, समझना ही चाहिए। अपनी आमदनी यदि सिर्फ इतनी है कि कठिनाई से बाल-बच्चों का पेट पालन हो सके, किन्तु स्त्री अधिक अच्छे कपड़े, जेवर जकड़ों की माँग करे तो फिर कर्ज ही तो लेना होगा। इन अशुभ कृत्यों के दंड से क्या सारे परिवार का वातावरणदुःखमय, बोझयुक्त और मलिन नहीं बनता? इस तरह की माँगें कभी भी उचित नहीं कही जा सकती। स्त्रियाँ अपने लिए उतनी ही अपेक्षा कर सकती हैं जितना संभव है। नाजायज की कल्पना करना बेजा है। इससे सम्पूर्ण गृहस्थी चौपट होने का भय रहता है।
चिन्ताओं से घिरा हुआ मनुष्य कभी ठीक तरह से सोच नहीं सकता। उसकी कार्य-क्षमता दिन-प्रतिदिन घटती जाती है। शरीर गिर जाता है। कई व्यक्ति तो हार मानकर घर छोड़कर भाग जाते हैं, कई आत्महत्यायें कर डालते हैं। कितने ही अपने शरीर को सुखा-सुखाकर अकाल मौत के घाट उतर जाते हैं। स्त्रियों को पुरुषों के मस्तिष्क में इस प्रकार की चिन्तायें पैदा करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए।
इतना तो कम क्या अनपढ़ स्त्रियाँ भी समझती हैं कि जैसी भी कुछ परिस्थिति है, जैसा भी कुछ रूप-कुरूप आदमी है, है तो अपना ही। अपनों के साथ भी यदि प्रेम-पूर्ण व्यवहार न किया जाय तो गृहस्थ- जीवन में सरसता कैसे आयेगी? हर व्यक्ति अपनी पत्नी-बच्चों से अपेक्षाकृत अधिक मधुर तथा सहृदय व्यवहार की आशा रखता है। यदि वह प्यार और आत्मीयता उसे न मिले तो मनुष्य गृहस्थी के मामलों में भी पूरी लगन से दिलचस्पी न लेगा। वह परिवार सदा डाँवाडोल परिस्थिति में ही पड़ा रहेगा।






