उमा कहहु मै अनुभव अपना...सत हरि भजन जगत सब सपना...

 राम नाम जाप करने के लिए कोई भी विधि-विधान  जरूरी नहीं है अगर आप के पास समय नहीं है तो आप चलते फिरते भी ले सकते है। 



राम नाम का जाप कभी भी, कहीं भी, किसी भी समय ,किसी भी स्थान और किसी भी परस्थिति में ले सकते है।राम नाम का जाप ह्रदय से मन ही मन या फिर  जोर- जोर से भजन के रूप में कर सकते है।



किसी भी दिन , दिशा आदि का , किसी भी परिस्थिति में राम नाम जाप का प्रभाव कम नहीं होता ।अपने मन में यह बात ठान लो कि  हमें बस जाप करना है और जाप निस्वार्थ भाव से करना है और राम का ही हो जाना है।



क्योकि जब हम इस भाव से राम नाम का जाप करते है तो अधिक प्रेम भाव से करते है


जब प्रेम का भाव मन में रहता है तो हम प्रभु श्री राम से अपने मन की हर वो बात कर सकते है , जिसका हम समाधान ढूँढ रहे है। 


 




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सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।


सत्य बहुमुखी प्रतिभा एवं कठिनतम साधना का प्रतीक है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सत्य का विशेष महत्त्व है क्योंकि झूठ के बराबर दूसरा कोई पाप नहीं है। सच की महिमा अपरम्पार है, जबकि झूठ ज्यादा दिन तक नहीं चलता, आज नहीं तो कल पकड़ा जाता है।



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‘सत्य’ तथा ‘तप का अर्थ’- ‘सत्य’ शब्द संस्कृत में ‘अस्ति’ शब्द से निर्मित है। क्रिया रूप से ‘अस्ति’ का अर्थ ‘स्थित है’ होता है, अर्थात् तीनों कालों भूत, वर्तमान, भविष्य में जो जीवित रहता है, वही ‘सत्य’ है। सत्य का पालन करना सबसे बड़ा धर्म है। ‘तप’ का अर्थ है ‘तपना’ । तप एक महान किन्तु कठिनतम साधना है, जिसके लिए तन, मन, धन तीनों से प्रयास करने पड़ते हैं इसलिए मन, कर्म, वचन द्वारा की गई सत्य क्रिया को ही ‘तप’ कहते हैं।



सत्यवादी मनुष्य का हृदय दर्पण की भाँति स्वच्छ होता है। वह अपनी बात को निर्भीकता तथा आत्मविश्वास के साथ दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करता है क्योंकि उसके हृदय में झूठ पकड़े जाने का भय नहीं होता है। हमारे सभी धर्म ग्रन्थ भी यही कहते हैं कि हमें सदा सत्य बोलना चाहिए  जीवन में कठिन से कठिन कार्यों की सिद्धि सत्य के सहारे ही सम्भव है। सत्य का स्वरूप बहुत ही विस्तृत एवं महान होता है। असत्य से व्यक्ति की केवल हानि ही होती है इसीलिए सत्य को तप के बराबर सम्मान प्राप्त है। सच बोलने वाला व्यक्ति सही में तपस्वी ही होता है क्योंकि सच बोलकर वह सबका भला करता है, ठीक उसी प्रकार जैसे एक तपस्वी संसार के कल्याण का मार्ग निश्चित करता है।



 यदि समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी तथा दूसरों की भलाई के लिए सत्य बोले तो समाज की उन्नति निश्चित है। आत्मा की उन्नति एवं विकास की कुंजी भी सत्य वाणी ही है। कभी-कभी सच कटु अवश्य लगता है, परन्तु हितकारी अवश्य होता है, जैसे कडवी दवाई ही हमारे रोग का सही उपचार करती है। तभी तो आदर्श मानव जीवन के लिए शिष्टता, नम्रता तथा सदाचार में से सत्य वाचन का गुण सर्वोपरि माना जाता है। सत्य बोलने के अनेक लाभ हैं। जीवन में ऐसी कौन सी सफलता व सिद्धि है, जो सत्य-साधना से नहीं मिल सकती है। हर व्यक्ति जीवन में सफलता पाने के लिए संघर्ष करता है, झूठ का सहारा लेता है लेकिन अंत में जीत तो सच की ही होती है और वह जीत चिरस्थायी होती है। अतएव संसार में उन्नति तथा सफलता पाने के लिए सत्यवादी होना परमावश्यक है। इसीलिए कहा भी गया है, “सत्यमेव जयते, नानृतम्।” अथवा “सत्येन एव रक्ष्यते धर्मः।”



हमारा भारतीय इतिहास सत्यवादी महापुरुषों की गाथाओं से भरा पड़ा है। इन सभी में राजा हरिश्चन्द्र का नाम सर्वोपरि है, जिन्होंने सत्यपालन के लिए अपना राज्य, परिवार, स्त्री-पुत्र आदि सभी का त्याग कर दिया था। तभी तो इस दोहे का स्मरण कर आज भी हमें गर्व महसूस होता है-


“चन्द्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार।

पै दृढ़ व्रत हरिश्चन्द्र को, टरै न सत्य विचार।”


महाराजा दशरथ ने अपने सत्य वचनों की रक्षार्थ अपने प्राणों से प्रिय पुत्र राम को वनवास के लिए भेज दिया था इसके लिए चाहे उन्हें अपने प्राणों की ही आहुति क्यों नहीं देनी पड़ी थी। महाभारत काल में सत्य-पालन के लिए भीष्म पिमामह ने कभी भी अपनी सत्य प्रतिज्ञाओं का निर्वाह करने में हिम्मत नहीं हारी। आधुनिक काल में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का ‘सत्य तथा अहिंसा’ के पथ पर चलने का सन्देश हमें इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है।



 आज हमारा भी यह कर्त्तव्य बनता है कि हम भी महापुरुषों के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए सत्य की राह पर चले। सत्य बोलने से ही मनुष्य सद्गति पा सकता है, तथा अपने चरित्र उत्थान में सहायक बनता है। वास्तव में यह तो सर्वविदित सत्य है कि अन्त में जीत सत्य की ही होती है क्योंकि सच बोलने से बड़ा कोई तप नहीं है तथा झूठ से बड़ा कोई पाप नहीं है। झूठ बोलने पर हमारी आत्मा हमें धिक्कारती है तथा सच बोलने पर हमारा दिल हमें आत्म-संतुष्टि देता है।


संत कबीर जी ने कहा है- सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप अर्थात् सच बोलने के समान कोई तपस्या ही नहीं हो सकती और झूठ बोलने जैसा कोई पाप नहीं है। हम चाहे अपने आप को कितना भी धार्मिक कहलाएं, किंतु अगर हम अपने को सच बोलने के पलड़े पर अपने आप को रखें, तो हमें अपने आप ही पता लग जाएगा कि हम कहां पर खड़े हैं? 


ऐसा इसलिए क्योंकि जितने भी पाप हैं, वो झूठ के बिना होते ही नहीं हैं। बिना झूठ बोले पाप नहीं हो सकता। जब हम झूठ बोलते हैं तब हम अपने आप को ऐसा अनुभव करते हैं जैसे हम कोई बहुत महान काम कर रहे हैं, लेकिन वही झूठ जब कोई हमें बोलता है तो हमें बहुत बुरा लगता है। हम यह नहीं सोचते जब मैं झूठ बोल रहा था तब दूसरा मेरे बारे में क्या सोच रहा होगा?

 

खैर, हमें अपने परमार्थ में आगे बढ़ने के लिए अथवा पुण्य कमाने के लिए हमें संत कबीर दास जी की बात को याद रखना चाहिए- सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।


 'झूठ पुख़्ता ढंग से बोलो और बार बार बोलो, तो लोग उसे सच मानने लगेंगे'. लेकिन, लोगों को यह विज्ञान नहीं पता था कि झूठ बोलना, झूठ बोलने वाले का कितना नुकसान करता है. कुछ ही समय पहले वैज्ञानिकों ने स्टडीज़ (Scientific Study) के बाद बताया कि झूठ बोलने से व्यक्ति का कम समय के लिए कोई फायदा भले हो, लंबे समय के लिए बड़ा नुकसान होता है. वहीं, सच बोलने या ईमानदारी बरतने से भले ही लगे कि नुकसान ज़्यादा होगा, लेकिन बड़ा फ़ायदा होता है.


जी हां, झूठ और सच बोलने के पीछे पूरा विज्ञान है. समाज, मीडिया और सियासत से हम बहुत हद तक रोज़मर्रा जीवन में जुड़े हैं इसलिए झूठ सुनने या झूठ के बारे में सुनने के आदी हैं. क्या कभी आपने सोचा है कि लोग झूठ आखिर क्यों बोलते हैं, झूठ या सच बोलने के पीछे विज्ञान क्या कहता है और झूठ बोलने से बचा कैसे जा सकता है... एक के बाद एक पहलू को समझते हैं.


हम झूठ बोलते ही क्यों हैं?

कई वजहें हो सकती हैं. किसी सज़ा या अपमान से बचने, ज़्यादा फायदा पाने, ताकत, पैसा, प्रमोशन या इंप्रेशन जमाने जैसी कई वजहों से लोग झूठ बोलते हैं. अर्थ समझा जाए तो किसी तरह के लाभ पाने या किसी तरह के नुकसान से बचने के लिए झूठ बोला जाता है.


मूल रूप से प्रेम का मतलब है कि कोई और आपसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो चुका है। यह दुखदायी भी हो सकता है, क्योंकि इससे आपके अस्तित्व को खतरा है। जैसे ही आप किसी से कहते हैं, ’मैं तुमसे प्रेम करता हूं’, आप अपनी पूरी आजादी खो देते है। आपके पास जो भी है, आप उसे खो देते हैं। जीवन में आप जो भी करना चाहते हैं, वह नहीं कर सकते। बहुत सारी अड़चनें हैं, लेकिन साथ ही यह आपको अपने अंदर खींचता चला जाता है। यह एक मीठा जहर है, बेहद मीठा जहर। यह खुद को मिटा देने वाली स्थिति है।


अगर आप खुद को नहीं मिटाते, तो आप कभी प्रेम को जान ही नहीं पाएंगे। आपके अंदर का कोई न कोई हिस्सा मरना ही चाहिए। आपके अंदर का वह हिस्सा, जो अभी तक ’आप’ था, उसे मिटना होगा, जिससे कि कोई और चीज या इंसान उसकी जगह ले सके। अगर आप ऐसा नहीं होने देते, तो यह प्रेम नहीं है, बस हिसाब-किताब है, लेन-देन है।


जीवन में हमने कई तरह के संबंध बना रखे हैं, जैसे पारिवारिक संबंध, वैवाहिक संबंध, व्यापारिक संबंध, सामाजिक संबंध आदि। ये संबंध हमारे जीवन की बहुत सारी जरूरतों को पूरा करते हैं। ऐसा नहीं है कि इन संबंधों में प्रेम जताया नहीं जाता या होता ही नहीं। बिलकुल होता है। प्रेम तो आपके हर काम में झलकना चाहिए। आप हर काम प्रेमपूर्वक कर सकते हैं। लेकिन जब प्रेम की बात हम एक आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में करते हैं, तो इसे खुद को मिटा देन की प्रक्रिया की तरह देखते हैं। जब हम ’मिटा देने’ की बात कहते हैं तो हो सकता है, यह नकारात्मक लगे।


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जब आप वाकई किसी से प्रेम करते हैं तो आप अपना व्यक्तित्व, अपनी पसंद-नापसंद, अपना सब कुछ समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं। जब प्रेम नहीं होता, तो लोग कठोर हो जाते हैं। जैसे ही वे किसी से प्रेम करने लगते हैं, तो वे हर जरूरत के अनुसार खुद को ढालने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह अपने आप में एक शानदार आध्यात्मिक प्रक्रिया है, क्योंकि इस तरह आप लचीले हो जाते हैं। प्रेम बेशक खुद को मिटाने वाला है और यही इसका सबसे खूबसूरत पहलू भी है।


आप इसे कुछ भी कह लें – मिटाना कह लें या मुक्ति कह लें, विनाश कह लें या निर्वाण कह लें। जब हम कहते हैं, ’शिव विनाशक हैं,’ तो हमारा मतलब होता है कि वह मजबूर करने वाले प्रेमी हैं। जरूरी नहीं कि प्रेम खुद को मिटाने वाला ही हो, यह महज विनाशक भी हो सकता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किसके प्रेम में पड़े हैं। तो शिव आपका विनाश करते हैं, क्योंकि अगर वह आपका विनाश नहीं करेंगे तो यह प्रेम संबंध असली नहीं है। आपके विनाश से मेरा मतलब यह नहीं है कि आपके घर का, आपके व्यापार का या किसी और चीज का विनाश। जिसे आप ’मैं’ कहते हैं, जो आपका सख्त व्यक्तित्व है, प्रेम की प्रक्रिया में उसका विनाश होता है, और यही खुद को मिटाना है।



जब आप प्रेम में डूब जाते हैं तो आपके सोचने का तरीका, आपके महसूस करने का तरीका, आपकी पसंद-नापसंद, आपका दर्शन, आपकी विचारधारा सब कुछ पिघल जाता है। आपके भीतर ऐसा अपने आप होना चाहिए, और इसके लिए आप किसी और इंसान का इंतजार मत कीजिए कि वह आकर यह सब करे। इसे अपने लिए खुद कीजिए, क्योंकि प्रेम के लिए आपको किसी दूसरे इंसान की जरूरत नहीं है। आप बस यूं ही किसी से भी प्रेम कर सकते हैं। अगर आप बस किसी के भी प्रति हद से ज्यादा गहरा प्रेम पैदा कर लेते हैं – जो आप बिना किसी बाहरी चीज के भी कर सकते हैं – तो आप देखेंगे कि इस ’मैं’ का विनाश अपने आप होता चला जाएगा।

भगवान के भक्तों से कभी भी उलझना नहीं चाहिए, क्योंकि आप नहीं जानते कि उनके पीछे कितनी प्रचंड शक्तियां हो सकती हैं.. जो आपको दारुण दुःख पहुंचा सकती हैं..।


भक्त भगवान से बड़े हैं, लेकिन सच्चे भक्त। भगवान तो भक्त के अधीन हो जाते है। भक्त अपने प्रेम और समर्पण से भगवान से कुछ भी सेवा करा सकता है।


भगवान कृष्ण ने बार बार कहा है कि वे भक्त के आधीन हैं,राजा अमरीष के मामले में कृष्ण सुदर्शन को लौटाने में असमर्थ थे,दुर्वासा को अमरीष की शरण में जाना पड़ा,भीष्म की टेक रखने के लिए, भक्त अर्जुन की रक्षार्थ शस्त्र नहीं उठाने की अपनी प्रतिज्ञा तोडी़.


भगवान ने तो भक्त को बड़ा कहा है.भक्त के पास भक्ति होती है, इसलिए भगवान उसके पीछे पीछे फिरते हैं, 

ऐसे बडे़ तो भगवान ही हैं,

सोचने वाली बात है कि एक छोटी सी चिंगारी  परमतत्व विशुद्ध रूप परमात्मा रूपी अग्नि को भी बंधन में बांधने की शक्ति रखता है(सामने ले आता है)।

इस लिहाज से प्रसन्न होकर भगवान को याद करिए।

संसार के झंझटों में रहकर भी जो भगवान का स्मरण करते हैं, वे ही सबसे बड़े भक्त हैं



भगवान और भक्त में भक्त को ही भगवान ने बडा माना है और ज़ब जरूरत पड़ी है तब सिद्ध भी किया है.

धन्ना भगत और नरसी भगत कि इज्जत रखने के लिए भगवान ने सौराष्ट्र में स्वर्ण अशर्फियों कि बरसात करवाई और अपने भगत की सम्मान की रक्षा की,  बृंदावन में उत्तरप्रदेश के मथुरा जिले में पगला बाबा का मंदिर है बाबा तो भगत था पगला था बस उसके पास एक गूदड़ था जितना मंदिर को धन चाहिए बनाने को रोज उस गूदड़ से निकलता था और मंदिर बन गया.

अतः भगवान कभी भी अपने भक्त को निराश नहीं करते स्वयं हार मान लेते हैं, उसका भला करते है. लेकिन कोई भी भक्त अपने आप को बडा नहीं मानता. सभी भगवान को पूजते है उनके उपासक है घमंड अभिमान नहीं करते. सज्जन इसी लिए कहे जाते है भक्त.

ऐसे बडे़ तो भगवान ही हैं.

ईश्वर का अस्तित्व ही भक्त की आस्था से है। भक्त हैं तभी ईश्वर है वरना वह भी नही।

भगवान के भक्तों से कभी भी उलझना नहीं चाहिए, क्योंकि आप नहीं जानते कि उनके पीछे कितनी प्रचंड शक्तियां हो सकती हैं.. जो आपको दारुण दुःख पहुंचा सकती हैं..।


 सबसे पहले तो ये जान ले की भक्ति क्या है, भक्ति और कुछ नहीं निस्वार्थ प्रेम है लेकिन लोग आजकल सही गुरु दिशा के अभाव में लोग भटक रहे है, लोग भक्ति को मंदिर में घंटा बजाना समझ रहे यही उनकी भूल है।

आप खुद सोचिए प्रेम करने के लिए कोई विधि चाहिए होती है क्या। जिस भक्ति में सिर्फ विधि होती है वह तो सिर्फ क्रिया होती है, और जहा प्रेम से पूजा की जाती है आपका मन लगा होता है वहां कैसी विधि।



जब भी प्रेम हो, तो परमात्मा को खोजना; पदार्थ पर मत अटक जाना। पदार्थ पर अटके--तो वासना और परमात्मा की सूझ-बूझ मिलने लगे--तो प्रार्थना। पदार्थ पर अटके तो नीचे की तरफ गए--कीचड़ की तरफ और अगर परमात्मा की सुध-बुध स्मरण आने लगे, तो मानो प्रेम की पराकाष्ठा पा ली l



मेरा विश्वास मानिए, आपके जितने भी दुश्मन, दोस्त, प्रतिद्वंद्वी, प्रेमी, नफ़रत करने वाले हैं...आज से 40 साल के भीतर ही उनमें से लगभग सब मर चुके होंगे !

40 साल भी शायद हमने ज़्यादा बता दिया...शायद 30-35 में ही ज़्यादातर निपट चुके होंगे...जो बचे भी होंगे, वो आंख, कान, हाथ, पैर, दिमाग़, याद्दाश्त...सब खो चुके होंगे...ये कड़वी सच्चाई है..समय का चक्र है..जरावस्था की हक़ीक़त है...और ये 30-35 साल पलक झपकते गुज़र जाएंगे ! ठीक वैसे ही, जैसे अबतक की उम्र गुज़र गई ! 

यहां सब क्षणिक है...बेहद क्षणिक...फिर कैसी चिंता, किस बात की फिक्र, कैसा डर, किससे डर, किससे तुलना, किससे प्रतिद्वंद्व, किससे दुश्मनी, किससे द्वेश, किस बात का द्वेश, किससे झिझक, कैसी झिझक....??

असल में यह जीवन तो आत्मा के अनंत सफ़र का एक छोटा सा पड़ाव मात्र है !


इसलिए हमेशा मस्त रहें, प्रसन्न रहें, आनंदित रहें, खुशहाल रहे, ऊर्जावान रहें, चहकते रहें, हंसते रहें, हंसाते रहें...



अपनी हैसियत अनुसार कभी होटलों में तो कभी खेतों-खलिहानों में, कभी नदी के किनारों पर तो कभी चौराहे के नुक्कड़ों पर, कभी किसी ज़रूरतमंद की मदद करते हुए तो कभी बच्चों के साथ खिलखिलाते हुए, कभी मित्रों के साथ तो कभी परिजनों के साथ, कभी पहाड़ों पर तो कभी झीलों के किनारे...कभी खेल के मैदान में तो कभी चौराहे वाली छोटी सी चाय की दुकान पर अपनी उम्र, पद, रैंक, पेशे इत्यादि झूठे व क्षणिक आवरण को फेंककर अट्ठाहास करके, पूरा मुंह खोलकर, हंस लिया कीजिए... चहक लिया करिए...मृत्यु तय है...जीवन बेहद अनिश्चित है...बेहद छोटा है।



पर हाँ, आप मुस्कुराते हुए इसे बड़ा...वृहत बना सकते हैं...


जैसे आज साल का आखिरी दिन है, ठीक वैसे हीं जिन्दगी का भी हो सकता है...कभी भी !