सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
सत्य बहुमुखी प्रतिभा एवं कठिनतम साधना का प्रतीक है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सत्य का विशेष महत्त्व है क्योंकि झूठ के बराबर दूसरा कोई पाप नहीं है। सच की महिमा अपरम्पार है, जबकि झूठ ज्यादा दिन तक नहीं चलता, आज नहीं तो कल पकड़ा जाता है।
‘सत्य’ तथा ‘तप का अर्थ’- ‘सत्य’ शब्द संस्कृत में ‘अस्ति’ शब्द से निर्मित है। क्रिया रूप से ‘अस्ति’ का अर्थ ‘स्थित है’ होता है, अर्थात् तीनों कालों भूत, वर्तमान, भविष्य में जो जीवित रहता है, वही ‘सत्य’ है। सत्य का पालन करना सबसे बड़ा धर्म है। ‘तप’ का अर्थ है ‘तपना’ । तप एक महान किन्तु कठिनतम साधना है, जिसके लिए तन, मन, धन तीनों से प्रयास करने पड़ते हैं इसलिए मन, कर्म, वचन द्वारा की गई सत्य क्रिया को ही ‘तप’ कहते हैं।
सत्यवादी मनुष्य का हृदय दर्पण की भाँति स्वच्छ होता है। वह अपनी बात को निर्भीकता तथा आत्मविश्वास के साथ दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करता है क्योंकि उसके हृदय में झूठ पकड़े जाने का भय नहीं होता है। हमारे सभी धर्म ग्रन्थ भी यही कहते हैं कि हमें सदा सत्य बोलना चाहिए जीवन में कठिन से कठिन कार्यों की सिद्धि सत्य के सहारे ही सम्भव है। सत्य का स्वरूप बहुत ही विस्तृत एवं महान होता है। असत्य से व्यक्ति की केवल हानि ही होती है इसीलिए सत्य को तप के बराबर सम्मान प्राप्त है। सच बोलने वाला व्यक्ति सही में तपस्वी ही होता है क्योंकि सच बोलकर वह सबका भला करता है, ठीक उसी प्रकार जैसे एक तपस्वी संसार के कल्याण का मार्ग निश्चित करता है।
यदि समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी तथा दूसरों की भलाई के लिए सत्य बोले तो समाज की उन्नति निश्चित है। आत्मा की उन्नति एवं विकास की कुंजी भी सत्य वाणी ही है। कभी-कभी सच कटु अवश्य लगता है, परन्तु हितकारी अवश्य होता है, जैसे कडवी दवाई ही हमारे रोग का सही उपचार करती है। तभी तो आदर्श मानव जीवन के लिए शिष्टता, नम्रता तथा सदाचार में से सत्य वाचन का गुण सर्वोपरि माना जाता है। सत्य बोलने के अनेक लाभ हैं। जीवन में ऐसी कौन सी सफलता व सिद्धि है, जो सत्य-साधना से नहीं मिल सकती है। हर व्यक्ति जीवन में सफलता पाने के लिए संघर्ष करता है, झूठ का सहारा लेता है लेकिन अंत में जीत तो सच की ही होती है और वह जीत चिरस्थायी होती है। अतएव संसार में उन्नति तथा सफलता पाने के लिए सत्यवादी होना परमावश्यक है। इसीलिए कहा भी गया है, “सत्यमेव जयते, नानृतम्।” अथवा “सत्येन एव रक्ष्यते धर्मः।”
झूठ बोलकर, धोखा देकर थोड़े समय के लिए सफलता अवश्य प्राप्त की जा सकती है, परन्तु यह सफलता अल्प समय के लिए ही होती है। झूठ पकड़े जाने पर उसे सबके सामने अपमानित होना पड़ता है और उसके बाद वह यदि सच भी बोलता है तो कोई उसका विश्वास नहीं करता है। झूठा व्यक्ति अपने झूठ से इस लोक तथा परलोक दोनों में पाप का भागीदार बनता है। झूठ बोलने वाले का कोई चरित्र नहीं होता, कोई उस पर विश्वास नहीं करता, न ही सम्मान देता है। ऐसा व्यक्ति सदैव चिन्ताओं से घिरा रहता है और जीवन को एक बोझ की भाँति वहन करता है,
हमारा भारतीय इतिहास सत्यवादी महापुरुषों की गाथाओं से भरा पड़ा है। इन सभी में राजा हरिश्चन्द्र का नाम सर्वोपरि है, जिन्होंने सत्यपालन के लिए अपना राज्य, परिवार, स्त्री-पुत्र आदि सभी का त्याग कर दिया था। तभी तो इस दोहे का स्मरण कर आज भी हमें गर्व महसूस होता है-
“चन्द्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार।
पै दृढ़ व्रत हरिश्चन्द्र को, टरै न सत्य विचार।”
महाराजा दशरथ ने अपने सत्य वचनों की रक्षार्थ अपने प्राणों से प्रिय पुत्र राम को वनवास के लिए भेज दिया था इसके लिए चाहे उन्हें अपने प्राणों की ही आहुति क्यों नहीं देनी पड़ी थी। महाभारत काल में सत्य-पालन के लिए भीष्म पिमामह ने कभी भी अपनी सत्य प्रतिज्ञाओं का निर्वाह करने में हिम्मत नहीं हारी। आधुनिक काल में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का ‘सत्य तथा अहिंसा’ के पथ पर चलने का सन्देश हमें इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है।
आज हमारा भी यह कर्त्तव्य बनता है कि हम भी महापुरुषों के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए सत्य की राह पर चले। सत्य बोलने से ही मनुष्य सद्गति पा सकता है, तथा अपने चरित्र उत्थान में सहायक बनता है। वास्तव में यह तो सर्वविदित सत्य है कि अन्त में जीत सत्य की ही होती है क्योंकि सच बोलने से बड़ा कोई तप नहीं है तथा झूठ से बड़ा कोई पाप नहीं है। झूठ बोलने पर हमारी आत्मा हमें धिक्कारती है तथा सच बोलने पर हमारा दिल हमें आत्म-संतुष्टि देता है।
संत कबीर जी ने कहा है- सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप अर्थात् सच बोलने के समान कोई तपस्या ही नहीं हो सकती और झूठ बोलने जैसा कोई पाप नहीं है। हम चाहे अपने आप को कितना भी धार्मिक कहलाएं, किंतु अगर हम अपने को सच बोलने के पलड़े पर अपने आप को रखें, तो हमें अपने आप ही पता लग जाएगा कि हम कहां पर खड़े हैं?
ऐसा इसलिए क्योंकि जितने भी पाप हैं, वो झूठ के बिना होते ही नहीं हैं। बिना झूठ बोले पाप नहीं हो सकता। जब हम झूठ बोलते हैं तब हम अपने आप को ऐसा अनुभव करते हैं जैसे हम कोई बहुत महान काम कर रहे हैं, लेकिन वही झूठ जब कोई हमें बोलता है तो हमें बहुत बुरा लगता है। हम यह नहीं सोचते जब मैं झूठ बोल रहा था तब दूसरा मेरे बारे में क्या सोच रहा होगा?
खैर, हमें अपने परमार्थ में आगे बढ़ने के लिए अथवा पुण्य कमाने के लिए हमें संत कबीर दास जी की बात को याद रखना चाहिए- सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
'झूठ पुख़्ता ढंग से बोलो और बार बार बोलो, तो लोग उसे सच मानने लगेंगे'. लेकिन, लोगों को यह विज्ञान नहीं पता था कि झूठ बोलना, झूठ बोलने वाले का कितना नुकसान करता है. कुछ ही समय पहले वैज्ञानिकों ने स्टडीज़ (Scientific Study) के बाद बताया कि झूठ बोलने से व्यक्ति का कम समय के लिए कोई फायदा भले हो, लंबे समय के लिए बड़ा नुकसान होता है. वहीं, सच बोलने या ईमानदारी बरतने से भले ही लगे कि नुकसान ज़्यादा होगा, लेकिन बड़ा फ़ायदा होता है.
जी हां, झूठ और सच बोलने के पीछे पूरा विज्ञान है. समाज, मीडिया और सियासत से हम बहुत हद तक रोज़मर्रा जीवन में जुड़े हैं इसलिए झूठ सुनने या झूठ के बारे में सुनने के आदी हैं. क्या कभी आपने सोचा है कि लोग झूठ आखिर क्यों बोलते हैं, झूठ या सच बोलने के पीछे विज्ञान क्या कहता है और झूठ बोलने से बचा कैसे जा सकता है... एक के बाद एक पहलू को समझते हैं.
हम झूठ बोलते ही क्यों हैं?
कई वजहें हो सकती हैं. किसी सज़ा या अपमान से बचने, ज़्यादा फायदा पाने, ताकत, पैसा, प्रमोशन या इंप्रेशन जमाने जैसी कई वजहों से लोग झूठ बोलते हैं. अर्थ समझा जाए तो किसी तरह के लाभ पाने या किसी तरह के नुकसान से बचने के लिए झूठ बोला जाता है.
